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May 9, 2024

भारतीय संस्कृति भोग प्रधान नहीं अपितु योग प्रधान है और हमारी योग प्रधान भारतीय संस्कृति की अक्षुण्ण कीर्ति और दिव्यता का आधार “अध्यात्म” है, स्वामी विज्ञानानन्द |

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“दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान” की ओर से “भारतीय नव वर्ष विक्रमी सम्वत् 2076” के उपलक्ष्य में अपने स्थानीय आश्रम में दो दिवसीय “दिव्य ध्यान शिविर” का आयोजन किया गया। जिसके आज प्रथम दिवस संस्थान की ओर से “श्री आशुतोष महाराज जी” के शिष्य स्वामी विज्ञानानन्द ने बताया कि पाश्चात्य संस्कृति का अन्धानुकरण करने के कारण आज भारतवासी अपनी सनातन भारतीय संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं। वस्तुतः आज भारतीयों को वेलेंटाइन डे से लेकर प्रत्येक पाश्चात्य दिवस तो याद है परन्तु चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को मनाया जाने वाला ऐतिहासिक, वैज्ञानिक व प्राकृतिक छटा से पूरित भारतीय नव वर्ष याद नहीं।


“चैत्र शुक्ल प्रतिपदा” की ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक महत्वता बताते हुए स्वामी जी ने बताया कि इसी दिन के सूर्योदय से ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना प्रारंभ की। इसी दिन मन्त्र द्रष्टा ऋषि मनीषियों द्वारा भारतीय दिन दर्शिका अर्थात् कैलेंडर का निर्माण व “पांचांग” की रचना भी हुई। सम्राट विक्रमादित्य ने इसी दिन राज्य स्थापित किया। इन्हीं के नाम पर विक्रमी संवत् का पहला दिन प्रारंभ होता है। प्रभु श्री राम के राज्याभिषेक का दिन यही है। शक्ति और भक्ति के नौ दिन अर्थात् नवरात्र का पहला दिन यही है। सिखो के द्वितीय गुरू श्री अंगद देव जी का जन्म भी इसी दिन हुआ। स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने इसी दिन आर्य समाज की स्थापना की एवं “कृणवंतो विश्वमआर्यम” का संदेश दिया | सिंध प्रान्त के प्रसिद्ध समाज रक्षक वरूणावतार संत झूलेलाल इसी दिन प्रगट हुए। विक्रमादित्य की भांति शालिवाहन ने हूणों को परास्त कर दक्षिण भारत में श्रेष्ठतम राज्य स्थापित करने हेतु यही दिन चुना। युधिष्ठिर का राज्यभिषेक भी इसी दिन हुआ। भारतीय नववर्ष का प्राकृतिक महत्व बताते हुए स्वामी जी ने बताया की वसंत ऋतु का आरंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही होता है जो उल्लास, उमंग, खुशी तथा चारों तरफ पुष्पों की सुगंधि से भरी होती है। कृषि प्रधान देश भारत में फसल पकने का प्रारंभ यानि किसान की मेहनत का फल मिलने का भी यही समय होता है। मूलतः प्रत्येक भारतवासी को अपनी दिव्य आर्यावर्त संस्कृति से जुड़ते हुए पाश्चात्य नववर्ष ना मना कर भारतीय नववर्ष ही मनाना चाहिए।


स्वामी जी के अनुसार भारतीय संस्कृति भोग प्रधान नहीं अपितु योग प्रधान है और हमारी योग प्रधान भारतीय संस्कृति की अक्षुण्ण कीर्ति और दिव्यता का आधार “अध्यात्म” है। एक सुंदर और स्वस्थ समाज की परिकल्पना युगों से मनुष्य का स्वप्न रहा है और इसे साकार करने की दिशा में सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में अपरिमित प्रयास भी किये जा रहे हैं। किसी भी राष्ट्र की संस्कृति उस राष्ट्र के जीवन का अविभाज्य अंग रही है और संस्कृति का सर्वांगीण विकास जीवन एवं समाज का विकास है। सांस्कृतिक मूल्यों के आधार पर ही व्यक्ति, राष्ट्र और समाज की पहचान होती है। परन्तु आज हमारे सांस्कृतिक मूल्य चरमरा रहे है क्योंकि आधुनिक वैज्ञानिक युग में जहाँ भौतिक विज्ञान द्वारा भौतिक सुख सुविधाओं का विकास हुआ है वहीँ मनुष्य की आंतरिक एवं आत्मिक क्षमताओं का हनन हो रहा है। जिसका परिणाम समाज में बढ़ता हुआ भ्रष्टाचार, अनैतिकता, अज्ञानता और आतंकवाद के रूप में यत्र तत्र सर्वत्र दृष्टिगोचर हो रहा है।


स्वामी जी ने “कर्म” की तात्विक परिभाषा के बारे में बताते हुए कहा कि योग योगेश्वर भगवन श्री कृष्ण की श्री मद भगवद् गीता कर्म की सार्थकता को पूर्णतः सिद्ध करती है कि “योगः कर्मसु कौशलम्” भाव कि ईश्वर के तत्व रूप से योग ही कर्म में कुशलता का रूपक है। आवश्यकता है कि जगद्गुरु कृष्ण की तरह हमारे जीवन में भी ऐसे गुरु आएं जो हमें अर्जुन की तरह हमारे भीतर तत्व रूप में ईश्वर का साक्षात्कार करवा दे। तभी अर्जुन की तरह हम ध्यान की गहनता में उतर कर भौतिक, मानसिक, बौद्धिक जीवन के हर युद्ध में विजय श्री का वरण कर सकते हैं। तभी जीवन और समाज की अज्ञानता, अनैतिकता और भ्रष्टाचार का हरण हो सकता है। जिससे सुदृढ़ राष्ट्र का निर्माण हो सकता है। क्योंकि मानव में क्रान्ति की व विश्व में शान्ति का आधार ब्रह्म ज्ञान है और यही मानव समाज की सुषुप्त चेतना का जाग्रति में रूपांतरण कर सकता है।


विश्व शान्ति की मंगल कामना करते हुए इस उपलक्ष्य पर साधकों ने सामूहिक ध्यान एवं विश्व शान्ति हेतु दिव्य मन्त्रों का विधिवत उच्चारण किया। साध्वी बागीशा भारती व काली भारती ने दिव्य भजनों का गायन कर साधकों का सकारात्मक मार्ग दर्शन भी किया।

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