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May 20, 2024

चूड़धार व अन्य पहाड़ी जंगलों में गृष्मकालीन प्रवास पर पहुंचा घुमंतू गुज्जर समुदाय

News portals-सबकी खबर (संगड़ाह ) Information and Technology के इस दौर में बेशक कुछ लोग चांद और मंगल ग्रह पर घर बनाने का सपना देख रहे हों, मगर दुनिया में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अपने देश में ही 2 गज जमीन व सिर पर छत के लिए भी मोहताज है। ऐसी ही कहानी सिरमौर के गुजर समुदाय की भी है, जो लगभग खानाबदोश जैसा जीवन जी रहे हैं। आधुनिकता की चकाचौंध से कोसों दूर अपने मवेशियों के साथ जंगल-जंगल घूम कर मस्ती से जीवन यापन करने वाले सिरमौरी गुज्जर समुदाय के लोग इन दिनों मैदानी इलाकों से Greater Sirmaur के पहाड़ी क्षेत्रों के छः माह के प्रवास पर पहुंच चुके हैं। गिरिपार क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले उपमंडल संगड़ाह, राजगढ़ व शिलाई के पहाड़ी जंगलों में सदियों से अप्रैल व मई महीने में उक्त समुदाय के लोग अपनी भैंस, गाय, बकरी व भारवाहक बैल आदि मवेशियों के साथ गर्मियां बिताने पहुंचते हैं। Choordhar peak पर Snowfall का दौर जारी होने के चलते अभी कुछ दिन यह लोग अपने पशुओं के साथ मध्यम ऊंचाई वाले इलाकों में रहेंगे और बारिश के चलते इन्हें खुले आसमान के नीचे रातें बिताने में दिक्कत भी आ रही है। सितंबर माह में ग्रेटर सिरमौर अथवा गिरिपार में ठंड अथवा ऊपरी हिस्सों मे हिमपात शुरू होने पर यह लौट जाते हैं तथा गंतव्य तक पहुंचने में इन्हे एक माह का समय लग जाता है। इनके मवेशियों के सड़क से निकलने के दौरान वाहन चालकों को कईं बार जाम की समस्या से जूझना पड़ता है। सिरमौरी साहित्यकारों व इतिहासकारों के अनुसार सिरमौरी गुज्जर छठी शताब्दी में मध्य एशिया से आई हूण जनजाति के वंशज है। इस समुदाय का Social Media, मीडिया, सियासत, औपचारिक शिक्षा, Internet व एंड्रॉयड फोन आदि से नजदीक का नाता नहीं है, हालांकि नई पीढ़ी के कुछ लोग धीरे-धीरे आधुनिक परिस्थितियों के मुताबिक खुद को बदल रहे हैं। पिछले कुछ अरसे से Gujjar Community के कुछ लोग केवल बातचीत करने के लिए मोबाइल फोन का इस्तेमाल करने लगे हैं तथा इनके कुछ बच्चे स्कूल भी जाने लगे हैं। गुज्जर समुदाय के अधिकतर परिवारों के पास अपनी जमीन अथवा घर पर नहीं है, हालांकि कुछ परिवारों को सरकार द्वारा पट्टे पर जमीन उपलब्ध करवाई गई है। काफी परिवार नौकरी, Buisness व खेती का धंधा कर अपने लिए घर व जमीन की व्यवस्था कर चुके हैं और घुमंतू लोगों की जनसंख्या महज 2,000 के करीब बताई जाती है। कुछ दशक पहले तक अनाज के बदले दूध देने वाले उक्त समुदाय के लोग अब अपने मवेशियों का दूध व खोया तथा घी आदि Milk Product बेच कर अपना जीवन यापन करते हैं। जिला में यह एकमात्र घुमंतू समुदाय है तथा और मुस्लिम धर्म से संबंधित इस जनजाति के पास जंगल में रोजा नमाज व पूजा-पाठ का समय नहीं रहता। जंगलों में परिवार के साथ जिंदगी बिताने के दौरान न केवल उक्त समुदाय के लोगों के अनुसार उन्हें न केवल प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ता है, बल्कि कईं बार जंगली जानवरों, स्थानीय लोगों, वाहन चालकों व नियमो की अवहेलना पर वन विभाग के कर्मचारियों की बेरुखी का भी सामना करना पड़ता है। जिला के पांवटा-दून, नाहन व गिन्नी-घाड़ आदि मैदानी क्षेत्रों से चूड़धार, उपमण्डल संगड़ाह अथवा गिरिपार के जंगलों तक पहुंचने में उन्हें करीब एक माह का वक्त लग जाता है। पहाड़ों का गृष्मकालीन प्रवास पूरा होने के बाद उक्त घुमंतू समुदाय अपने मवेशियों के साथ मैदानी इलाकों के अगले छह माह के प्रवास पर निकल जाएगा और इसी तरह इनका पूरा जीवन बीत जाता है। गत वर्ष गिरिपार की करीब 1 लाख 60 हजार की स्वर्ण आबादी को Shedule Tribe Status दिए जाने को केंद्रीय कैबिनेट की मंजूरी के खिलाफ उक्त समुदाय के लोगों द्वारा प्रदर्शन भी किए गए थे, हालांकि इन Protesters में घुमंतू गुज्जरों की वजाय ज्यातर नौकरी, करोबार व खेती जैसे काम करने वाले साधन सम्पन्न अथवा सेटल हो चुके लोग बताए गए। गुज्जर नेताओं के अनुसार गिरिपार के लोग उनसे कहीं ज्यादा पढ़े-लिखे व साधन सम्पन्न है और उन्हें अनुसूचित जनजाति दर्जे से हमे वर्तमान में मिल रहे आरक्षण का के फायदे कम होंगे।

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